जो रोगी क्षय रोग का शिकार होता है, रोग की प्रारंभिक अवस्था में जैसे ही शाम घिरने लगती है, वैसे ही उसको हरारत सी अनुभव होने लगती है। रोगी हल्का ज्वर अनुभव करता है। लेकिन थर्मामीटर लगाने पर ज्वर के लक्षण नहीं मिलते। रोगी के शरीर का तापमान सामान्य बना रहता है। रोगी खुद को थका हारा सा अनुभव करता है। धीरे-धीरे यह थकावट आगे चलकर दुर्बलता, कमजोरी हीनता और कृशता में परिणत होती जाती है। थोड़ा सा काम करके रोगी थक जाता है और हाफने लगता है। ऐसे में रोगी को खाँसी का वेग भी उठता है। छाती में जकड़न सी अनुभव होने लगती है। छाती के भारीपन से घबराहट और बेचैनी महसूस होती है। रोगी को खाँसी के साथ बलगम भी आता है। रोग की बलगम-थूक में रक्त भी मिल आता है। इस दौरान दुर्बलता काफी बढ़ जाती है। रोगी क्रमशः असहाय, बलहीन होता चला जाता है। रोगी चिड़चिड़ा हो जाता है। माथा भारी रहने लगता है।
दो हफ्ते से ज्यादा खाँसी रहना क्षय रोग का संकेत है। क्षय रोग होने पर व्यक्ति ज्यादा खाँसता है, क्षय की शुरुआत में खाँसी कम होती है लेकिन क्षय रोग जैसे जैसे बढ़ता है वैसे वैसे खाँसी भो बढ़ती जाती है। जब क्षय रोग बहुत ज्यादा बढ़ जाता है तो खाँसी में खून आने लगता है। खाँसी में खून आने की अवस्था को खतरनाक बताया गया है। क्षय का रोगी को भूख नहीं लगती है, भूख लगती भी है तो बहुत कम। दो चार ग्रास खाकर रोगी थाली से मुँह फेर लेता है। क्षय रोगी को कितना भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न दिया जाय, वह ज्यादा नहीं खाता है क्योंकि क्षय रोग की वजह से भूख मर जाती है।
रोग जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, लक्षणों में भी तीव्रता आती जाती है। रोग बढ़ने पर रोगी को हल्का-हल्का ज्वर रहने लगता है। रात को ज्वर विशेष रूप से रहता है। कुछ रोगियों को ज्वर नहीं भी रहता। क्षय रोगी को रात में सोते समय ठंडा पसीना आता है। कमजोरी और ज्यादा बढ़ जाती है। रोगी का वजन दिन प्रतिदिन घटता चला जाता है। दिल की धड़कन में आंशिक तौर पर वृद्धि होने लगती है। रोगी को खाँसी का वेग भी प्रबल हो जाता है। खाँसते समय रोगी को अपनी छाती में दर्द की शिकायत भी रहती है। खाया-पिया अंग नहीं लगता। भूख मर जाती है। रोगी अक्सर खाने की थाली देखकर मुंह फेर लेता है। बदहजमी, अरुचि, मंदाग्नि, मितली और वमन के साथ-साथ प्यास बढ़ जाती है। छाती में दर्द और खाँसी की वजह से रोगी को साँस लेने में तकलीफ होने लगती है। इस बीच रोगी को रक्ताल्पता, शोथ, गले के घाव, अतिसार, पेचिश आदि यदि अलग से और रोग हो जाए तो इस रोग को खतरनाक समझना चाहिए।
क्षय रोग यदि जवानी में हो जाए तो उससे आसानी से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। लेकिन बुढ़ापे में होने वाला क्षय रोग कष्टसाध्य हो जाता है। वंशगत रोग काफी कठिनाई से जाता है।