यह रोग अति खतरनाक और जानलेवा होता है। इसका आक्रमण जैसे ही होता है, रोगी एकाएक कमान की भांति अकड़ जाता है। उसे तेज झटके लगते हैं, जिससे शरीर की हड्डी-हड्डी चरमरा उठती है। रोगी गले में वेदना अनुभव करता है। साँस अटकती सी महसूस होने लगती हैं। रोगी की गर्दन अकड़ जाती है। चेहरे की मांसपेशियों में खिंचाव उत्पन्न हो जाता है। आँखें चढ़ जाती हैं। दाँत जम जाते हैं। पूरा शरीर अनायास ही पसीने से तरबतर हो जाता है। कुछ रोगियों को इस रोग के आक्रमण उपरोक्तानुसार बिना किसी अन्य लक्षण के अनायास प्रारंभ हो जाते हैं। लेकिन कुछ रोगियों को ऐसा नहीं होता। उन्हें पहले तेज बुखार आता है। उसके बाद एकाएक इस रोग के लक्षण प्रकट होते देखे जाते हैं। यह दौरा बेहद तकलीफ देह होता है। इसमें रोगी को भारी जानलेवा कष्ट अनुभव होता है। कुछ देर के बाद यह दौरा अपने आप थम जाता है। यदि यह दौरा बार-बार पड़ने लगे तो समझना चाहिए कि रोगी की स्थिति बदतर हो रही है। इसके झटके तीव्र वेदनाजनक होते हैं। हर झटके में रोगी के प्राण हलक में आ जाते हैं।
इस रोग में रोगी की व्यक्तिगत सहनशक्ति की अग्निपरीक्षा होती है। यदि इस रोग के झटके रोगी सहन नहीं कर पाये तो 3 दिन से लेकर 10 दिन के अंदर-अंदर रोगी की साँस घुट जाने की वजह से मृत्यु हो जाती है। अधिकांश रोगी 3 दिन में परलोक सिधार जाते देखे जाते हैं। रोगी रोग के आक्रमण से उत्पन्न कमजोरी के कारण भी मर सकता है। जो रोगी इस रोग के दौरे के दौरान पड़ने वाले झटके झेल लेते हैं, वे बच जाते हैं। ऐंठन और अकड़न में जब रोगी एकाएक गिरता है, उसको खरोंचें तथा चोट आदि भी लग जाती है। रोग के प्रभाव से रोगी का हृदय तथा फेफड़े कमजोर पड़ने लगते हैं। इसके पूर्व होने वाला ज्वर भी भयंकर जानलेवा हो सकता है। रोगी को 106 से 108 डिग्री तक बुखार हो सकता है। अधिकांशतः कमजोर और कोमल स्वभाव के रोगी मर जाते हैं।
रोग का इतिहास पता करने पर रोगी को रोग के पूर्व किसी चोट, घाव आदि का पता चलता है। जब किसी नवजात शिशु को यह रोग होता है, तब आमतौर पर नाल काटने में लापरवाही और गैरजिम्मेदारी सामने आती है। दूषित ब्लैड, कैंची या अन्य औजार प्रयोग करने से नवजात शिशु को यह रोग होता है। ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चे भी दूषित उपकरणों के कारण इस रोग के शिकार होते हैं।
इस रोग का पहला लक्षण जबड़े की हड्डी में विकार उत्पन्न हो जाने पर देखने को मिलता है। रोगी जबड़े को खोलने और बंद करने में थोड़ी असुविधा अनुभव करने लगता है। वेदना भी होती है। रोगी को लगता है जैसे जबड़े में सर्दी के प्रभाव से अकड़न-जकड़न सी आ गई है। यदि दूध पीते बच्चे पर आक्रमण होने वाला हो तो आक्रमण के पहले वह दूध पीना बंद कर देता है। उसके बाद लक्षण और आगे बढ़ने लगते हैं। मुँह बंद हो जाता है। उसके बाद रोग गर्दन की ओर बढ़ता है। गर्दन अकड़ जाती है। भवें तन जाती है। शरीर की मांसपेशियाँ तन जाती हैं। उसके बाद शरीर धनुष के समान अकड़कर टेढ़ा हो जाता है।
रोगी के रक्त की जांच की जाए तो श्वेत कणों की संख्या बढ़ी हुई मिलती है। रोग के लक्षण प्रकट होते ही यदि तुरंत रोग विरोधी टिका लग जाए तो लक्षण आगे नहीं बढ़ पाते और रोगी निरोग भी हो जाता है। घातक अवस्था में इतने तीव्र आक्षेप आते हैं कि मांसपेशियाँ तक फट जाती है। उपद्रव के रूप में रोगी को ब्रोन्कोन्यूमोनिया होता देखा जाता है।